इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुँधुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास चलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अंधकार…
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झाकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरोंसे टूटते आएँगे फूल
अंतहीन आलिंगनो के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान…
This article was originally published by Manglesh Dabral in Trolley Times.
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