जब शुरू किया इस दुनिया को समझना खुद के नजरिए से
तो समझ आया दूसरा पहलू हर चीज का
वो परिभाषाएं किताबों की जब आजमा कर देखी हक़ीक़त में
तो पता लगा अधूरा है रूप अभी इन शब्दों का
एक रोज जो सड़क से गुजरी मैं देखा एक रोता बच्चा
अचानक से साथी ने उसे हट बे भिखारी बोला
क्या सच में वो भिखारी था ?
या भिखारी हमारी सोच हो गई है,
मजबूर जब दो वक़्त की रोटी को जब हाथ फैलाता है
तो क्यूं वो भिखारी कहलाता है?
क्यूं समाज उसे इस नाम से बुलाता है?
क्या वो अपनी मर्जी से भिखारी बनना चाहता है?
नहीं !
बस जब पेट की आग इज्जत की शर्म से ज्यादा बढ़ जाती है
तो उसे केवल रोटी याद आती है उस मज़बूरी में,
रोजगार की कमी और अपनों के हाथों बेघर होकर
मजबूर वो इंसान कभी उठता है आसमान से ऊंचा
और अगर गिरा कोई उनमें से तो ऐसा गिरा बस रेंगता रहता है
ऐसा लगता है मानो इस दुनिया में सब अपने में उलझे हुए हैं
इंसानियत की परिभाषा पर भारी अमीरी गरीबी के शब्द हुए हैं
और कुर्सी पर बैठे राजनेता क्यूं इन पर निशब्द हुए हैं?
कभी कभी सोचती हूं आखिर हक़ीक़त में ये भिखारी कौन है
वो जो जिंदगी जीने की आस में दूसरों से थोड़ी मदद मांगता है
या वो जो उनसे दूर कहीं उनकी इस हालत के जिम्मेदार हैं
वो अनाथ बच्चा जो ठीक से बोलना भी नहीं जानता
या वो जो उसे अनाथ बनाने के लिए जिम्मेदार हैं
क्या वो किसान जो मेहनत कर फसल उगाता है
और फिर उसका सही मोल भी उस ना मिल पाता है
या वो मजदूर जो दिन रात खून पसीना कर इमारतें बनाता है
मगर खुद के परिवार को एक सुरक्षित छत नहीं दे पाता है
क्या केवल सड़क पर बेढंग कपड़े पहन झोली फैला ,
और नाच गा कर पैसा मांगने वाला ही भिखारी है
या वहीं किसी सड़क किनारे रात को भूखे पेट सोता एक बुजुर्ग
जो निकाल दिया गया उसके बच्चों द्वारा उसके ही घर से
या वो विधवा औरत जो भटकती है दर-दर डर-डर कर
अपने और परिवार के भविष्य की चिंता में
क्या सिर्फ उन उलझे बालों में हाथ डाले गोद में बच्चा लिए
कोई विकलांग पैसा मांगने वाली भिखारन है
या वो लड़की जो अपनी मर्जी से जिन्दगी को समझना चाहती है
मगर समाज की छोटी सोच उसे जीवन भर बंधे रखती है
और न जाने क्यों अनेकों बार खुद को भी इसी हाल में पाती हूं
या वो सफाई कर्मचारी जो इज्जत और मेहनत से काम करते हैं
मगर फिर भी छूआछूत का सामना करते हैं
पेशा इंसान का जो भी हो फर्क नहीं पड़ता क्योंकि
हर कोई भिखारी बन बैठा है एक दूसरे की नजरों में
हर कोई अपनी जरूरत पूरी करने के चक्कर में
हाथ फैला रहा है दूसरों के सामने
फिर चाहे वो हमारे राजनेता ही क्यों न हो
जब जनता से वोट मांगते हैं तो उनका भी रूप
एक भिखारी सा लगता है एक दूसरे रूप में
एक बात तो जरूर समझ आ गई कि
जो किताबों में लिखीं हैं परिभाषा शब्दों की
हक़ीक़त में उससे लाख गुना बडी होती हैं
और हां भिखारी है वो हर शक्श
जिसकी इंसानियत मरी हुई होती हैं
और जिसके कारण दूसरे के जीवन में दुख की घड़ी होती है।
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